Tuesday, 9 December 2014

गगन में लहरता है भगवा हमारा - अटल बिहारी वाजपेयी | Gagan Me Leharta Hai Bhagwa - Atal Bihari Vajpayee

प्रखर स्वयंसेवक और प्रचारक रहे मा श्री अटल बिहारी वाजपेयी जी की महान संरचनाओं में से एक कविता जो दिल को छूती है 

  " गगन में लहरता है भगवा हमारा " 

यह कविता निश्चित ही कोई वीर रस के धुरंधर एवं सच्चे राष्ट्रवाद के पुजारी ही लिख सकते हैं
कविता में कवि ने सत्य का वर्णन बड़े ही पीड़ादायक शब्दों में किया है, जिसे पढ़ सुनकर किसी भी देशभक्त के रोंगटे खड़े हो जाएं
कविता में हिन्दुओं द्वारा सहे गए अपमान, लुटे स्वाभिमान एवं सब कुछ खो देने के बावजूद भी पूज्य भगवा ध्वज, साधुओं के चोलों पर नहीं तो हर भारतवंशी के दिल में बसा रहा.

भगवा ध्वज, राष्ट्र आराधना का प्रतीक, परम पूजनीय है, सदिओं से चलते आये आक्रमणों के बीच भी, पूज्य भगवा ध्वज सभी देशप्रेमियों, चाहे वे किसी भी पंथ या संप्रदाय को मानने वाले हों, सिख हो या सनातनी हो, आर्य समाजी हो या बिश्नोई हो, जैन हो या बोद्ध हों, प्राणों के भांति, ऊर्जा प्रदान करता रहा.

आए सभी मिलकर कविता को लिखित रूप में और चाहे तो निःशुल्क DOWNLOAD का भी आनंद उठायें  

भारत माता की जय


॥ गगन में लहरता है भगवा हमारा ॥
गगन मे लहरता है भगवा हमारा ।
घिरे घोर घन दासताँ के भयंकर
गवाँ बैठे सर्वस्व आपस में लडकर
बुझे दीप घर-घर हुआ शून्य अंबर
निराशा निशा ने जो डेरा जमाया
ये जयचंद के द्रोह का दुष्ट फल है
जो अब तक अंधेरा सबेरा न आया
मगर घोर तम मे पराजय के गम में विजय की विभा ले
अंधेरे गगन में उषा के वसन दुष्मनो के नयन में
चमकता रहा पूज्य भगवा हमारा॥१॥

भगावा है पद्मिनी के जौहर की ज्वाला
मिटाती अमावस लुटाती उजाला
नया एक इतिहास क्या रच न डाला
चिता एक जलने हजारों खडी थी
पुरुष तो मिटे नारियाँ सब हवन की
समिध बन ननल के पगों पर चढी थी
मगर जौहरों में घिरे कोहरो में
धुएँ के घनो में कि बलि के क्षणों में
धधकता रहा पूज्य भगवा हमारा ॥२॥

मिटे देवाता मिट गए शुभ्र मंदिर
लुटी देवियाँ लुट गए सब नगर घर
स्वयं फूट की अग्नि में घर जला कर
पुरस्कार हाथों में लोंहे की कडियाँ
कपूतों की माता खडी आज भी है
भरें अपनी आंखो में आंसू की लडियाँ
मगर दासताँ के भयानक भँवर में पराजय समर में
अखीरी क्षणों तक शुभाशा बंधाता कि इच्छा जगाता
कि सब कुछ लुटाकर ही सब कुछ दिलाने
बुलाता रहा प्राण भगवा हमारा॥३॥

कभी थे अकेले हुए आज इतने
नही तब डरे तो भला अब डरेंगे
विरोधों के सागर में चट्टान है हम
जो टकराएंगे मौत अपनी मरेंगे
लिया हाथ में ध्वज कभी न झुकेगा
कदम बढ रहा है कभी न रुकेगा
न सूरज के सम्मुख अंधेरा टिकेगा
निडर है सभी हम अमर है सभी हम
के सर पर हमारे वरदहस्त करता

गगन में लहरता है भगवा हमारा॥४॥ 

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