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लुप्त होती कश्मीर की आबरू - शारदा लिपि
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संस्कृति द्रोह और भारत द्वेष के कारण आज एक लिपि लुप्त होने की कगार पर है
बात है कश्मीर में जन्मी लेखन पद्दति या लिपि जिसे शारदा लिपि कहते है
जी हाँ कश्मीर और पंजाब क्षेत्र की लिपि शारदा ही थी, शारदा लिपि ही गुरमुखी जो आज पंजाब में विस्तृत रूप से लिखी जाती है, की जननी है।
पुराने पञ्जाबी व् कश्मीरी साहित्यकारों ने शारदा लिपि का खूब प्रयोग किया है
आज आप जम्मू कश्मीर जाएँ तो आपको कश्मीरी भाषा फ़ारसी-अरबी इत्यादि विदेशी लिपियों की तरह ही एक मिलती जुलती लिपि में लिखी दिखाई पड़ेगी।
चलिए मान लेते हैं
इस्लामिक चिंतन के लोग अधिक है कश्मीर में इसलिए हार्दिक रूप से वे अरब में ही रमते बसते हैं
सो अरबी फ़ारसी लिपि ही प्रयोग करेंगे और कश्मीरी भाषा में भी कुछ कुछ इस्लामी भाषाएँ मिलाते होंगे।
परन्तु कश्मीरी हिंदुओं का भी उतना ही बुरा हाल है, प्रजा बेशक मुस्लिम हो, कश्मीर का राजा तो लगभग 1000 सालो से हिन्दू डोगरा राजपूत ही हैं, सत्ता हाथ में होते हुए भी शारदा लिपि को उच्च दर्जा दिलाने के लिए कुछ न किया??
आज किसी कश्मीरी पण्डित से पूछो की कश्मीरी शारदा में क्यों नही लिखते तो निष्क्रिय कबूतर अपने बच्चों का मुँह यह कह के बन्द करवा देते हैं
"It is very tough script". यह तो निष्क्रियता और अकर्मण्यता की पराकाष्ठा है।
लेकिन बांग्लादेश जैसे राष्ट्र ने बांग्ला भाषा को अपना सिरमौर माना, आमार सोनार बांग्ला उनका राष्ट्रगान रवीन्द्रनाथ ठाकुर का लिखा हुआ है, लिपि भी वही है जो भारत के बंगाल में लिखी पढ़ी जाती है। इन्होंने खामखाँ ही उर्दू को थोपा नही जाने दिया न ही अरबी फ़ारसी जैसी दिखने वाली कोई लिपि अपने ऊपर थोपवाई।
देश ही अलग बनवा लिया
नाम रखा बांग्लादेश न की बांग्लामुल्क।
शेख हसीना जी बुरका नही पहनती, साड़ी पहनती हैं व् महिलाये बिंदी और अन्य श्रृंगार को बांग्ला संस्कृति का हिस्सा मानती हैं।
हिन्दू व् भारत से द्वेष के चलते ये कश्मीरी स्वयम् को ही भूल बैठे, अब केवल कश्मीरी हिंदुओं पर ही यह जिम्मा है की क्या वे कश्मीरियत को अपने बच्चों को संस्काररूप दे पाते हैं या नही?
खेर वे अपने अस्तित्व को बचाने में ही फिलहाल सक्षम नही हैं, भाषा, संस्कृति, लिपि को क्या बचा पाएंगे ?
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विचारक
लुप्त होती कश्मीर की आबरू - शारदा लिपि
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संस्कृति द्रोह और भारत द्वेष के कारण आज एक लिपि लुप्त होने की कगार पर है
बात है कश्मीर में जन्मी लेखन पद्दति या लिपि जिसे शारदा लिपि कहते है
जी हाँ कश्मीर और पंजाब क्षेत्र की लिपि शारदा ही थी, शारदा लिपि ही गुरमुखी जो आज पंजाब में विस्तृत रूप से लिखी जाती है, की जननी है।
पुराने पञ्जाबी व् कश्मीरी साहित्यकारों ने शारदा लिपि का खूब प्रयोग किया है
आज आप जम्मू कश्मीर जाएँ तो आपको कश्मीरी भाषा फ़ारसी-अरबी इत्यादि विदेशी लिपियों की तरह ही एक मिलती जुलती लिपि में लिखी दिखाई पड़ेगी।
चलिए मान लेते हैं
इस्लामिक चिंतन के लोग अधिक है कश्मीर में इसलिए हार्दिक रूप से वे अरब में ही रमते बसते हैं
सो अरबी फ़ारसी लिपि ही प्रयोग करेंगे और कश्मीरी भाषा में भी कुछ कुछ इस्लामी भाषाएँ मिलाते होंगे।
परन्तु कश्मीरी हिंदुओं का भी उतना ही बुरा हाल है, प्रजा बेशक मुस्लिम हो, कश्मीर का राजा तो लगभग 1000 सालो से हिन्दू डोगरा राजपूत ही हैं, सत्ता हाथ में होते हुए भी शारदा लिपि को उच्च दर्जा दिलाने के लिए कुछ न किया??
आज किसी कश्मीरी पण्डित से पूछो की कश्मीरी शारदा में क्यों नही लिखते तो निष्क्रिय कबूतर अपने बच्चों का मुँह यह कह के बन्द करवा देते हैं
"It is very tough script". यह तो निष्क्रियता और अकर्मण्यता की पराकाष्ठा है।
लेकिन बांग्लादेश जैसे राष्ट्र ने बांग्ला भाषा को अपना सिरमौर माना, आमार सोनार बांग्ला उनका राष्ट्रगान रवीन्द्रनाथ ठाकुर का लिखा हुआ है, लिपि भी वही है जो भारत के बंगाल में लिखी पढ़ी जाती है। इन्होंने खामखाँ ही उर्दू को थोपा नही जाने दिया न ही अरबी फ़ारसी जैसी दिखने वाली कोई लिपि अपने ऊपर थोपवाई।
देश ही अलग बनवा लिया
नाम रखा बांग्लादेश न की बांग्लामुल्क।
शेख हसीना जी बुरका नही पहनती, साड़ी पहनती हैं व् महिलाये बिंदी और अन्य श्रृंगार को बांग्ला संस्कृति का हिस्सा मानती हैं।
हिन्दू व् भारत से द्वेष के चलते ये कश्मीरी स्वयम् को ही भूल बैठे, अब केवल कश्मीरी हिंदुओं पर ही यह जिम्मा है की क्या वे कश्मीरियत को अपने बच्चों को संस्काररूप दे पाते हैं या नही?
खेर वे अपने अस्तित्व को बचाने में ही फिलहाल सक्षम नही हैं, भाषा, संस्कृति, लिपि को क्या बचा पाएंगे ?
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विचारक