संघ का प्रत्येक स्वयंसेवक इसी कथन से प्रेरणा लेकर राष्ट्र की साधना करने की शपथ लेता है
‘मैं समाज के लिए हूँ’ इस भावना को भुलाकर ‘समाज मेरे लिए है’ इस विचार के हम शिकार हो गये। यह भाव हमारे मन में इतना गहरा जमकर बैठा है कि जो मनुष्य अपने स्वयं के मोक्ष के लिए प्रयत्न करता है, जप-तप करता है, जो कभी किसी से लड़ता नहीं, किसी के लेने-देने में नहीं, अपने घर और नौकरी को ही सब कुछ समझने की संकुचित भावना से सब व्यवहार करता है, उसी कि हम लोग भी-भर प्रशंसा करते हैं। इस स्तुतिपाठ को हमारे बाल-बच्चे सुनते हैं तथा ऐसे स्वार्थीं व्यक्ति को ही आदर्श समझकर तदनुरूप आचरण का प्रयत्न करते हैं। जब तक हमारी यह विचारसरणी है तब तक हिन्दू राष्ट्र नष्ट ही होता जायेगा। आज तरुण पीढ़ी के मन में यह भाव ही नहीं आता कि समाज जियेगा तो मैं भी जिऊँगा। हम कुटुम्बनिष्ठा के रोग से ग्रस्त हैं। जिनके अन्तःकरण में व्यक्तिगत स्वार्थ को किंचिन्मात्र स्थान नहीं है, ऐसे खरे देशभक्त कितने मिलेंगे ? बहुत ही थोड़े। हिन्दू राष्ट्र का विचार करते समय व्यक्ति का विचार मन से निकाल डालिए। जो ‘मैं और राष्ट्र एक ही हैं’ यह भाव लेकर राष्ट्र एवं समाज के साथ तन्मय होता है वही सच्चा राष्ट्रसेवक है। कुछ लोग बड़े अभिमान से कहते हैं कि ‘राष्ट्र के लिए मैंने इतना त्याग किया’, परन्तु यह कहते हुए उनके ध्यान में यह नहीं आता कि इस प्रकार वे यह दिखा देते हैं कि वे राष्ट्र से अलग हैं तथा राष्ट्र से उनका कोई सम्बन्ध नहीं है। यदि उदाहरण देना है तो क्या यह कहना कठिन होगा कि पिता ने अपने बेटे के यज्ञोपवीत में जो खर्च किया वह उसका बड़ा भारी त्याग हुआ ? ‘मैंने अपने बेटे के लिए इतना त्याग किया’ यह कहना कहाँ तक युक्तिसंगत होगा ? कुटुम्ब के लिए किया हुआ खर्च जैसे स्वार्थत्याग नहीं होता वैसे ही राष्ट्ररूपी कुटुम्ब की सेवा में किया हुआ व्यय भी स्वार्थत्याग नहीं है। राष्ट्र के लिए खर्च करना, कष्ट सहना यह तो उसके प्रत्येक घटक का पवित्र कर्तव्य है। उसमें स्वार्थ-त्याग काहे का ?’’
- Dr. Keshavrao Baliram Hedgewar Ji (Doctor Ji)
संघ संस्थापक डाक्टर केशव बलिराम हेडगेवार जी के कथन :
- Dr. Keshavrao Baliram Hedgewar Ji (Doctor Ji)